Monday 10 September 2018

शफर-दर-शफर

कुछ ख्वावों के खातिर हर
पल आँखों मे नमी सी है,,

               मौज़ूद हूँ मैं हर कोशिश मे
               पर कुछ तो कमी सी है,,

खोया हूँ कुछ इस क़दर खुद में
ही मंज़िल की आरज़ू लिए,,

                 है लब तलबगार दुआओं की पर
                 दिल मे कुछ यादें थमी सी है..

इरादें हर-बार पिघल रही है
मुश्किल-ए-धुप देख कर,,

                  कबसे बादलों की छाँव लिए
                  मुंतज़िर मंज़िल जमी सी है..

किस इंतेज़ार मे बैठा है 'साबिर'
मंज़िल की ओर बढ़ता जा,,

                     रंग बदलते वक़्त नहीं लगता वक़्त
                     को फितरत इसकी आदमी सी है.. 

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