Tuesday 18 September 2018

शफर-ए-मंज़िल

निकले हो सफ़र में तो संभल कर चुन्ना साथी,,
खुद के साये भी यहाँ अंधेरे में साथ छोड़ देते हैं..

मंसूबे जो है तेरे कैहना न किसी से भी राहों में,,
ये राह-ए-मंज़िल है यहाँ शीशे पत्थर तोड़ देते हैं..

हज़ार बातें सुनने को मिलेगी सुन्ना तो सिर्फ खुद की,,
बातों से लोग यहाँ इरादों के ऊचे पहाड़ तोड़ देते हैं..

पूछता कौन है उनसे जो दिल में गम छिपाये बैठे है,,
मुस्कुराते चहरे को यहाँ आंसुओं में डूबता छोड़ देते है..!!
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भटकने से मिलती हैं उन्हें ही मंज़िल,,
जो हालातो से उलझना छोड़ देते हैं..

वफ़ा की उम्मीद तो हम उनसे भी करते है,,
जो सर-ए-राह-ए-इश्क़ हमें तन्हा छोड़ देते है..!!

मिलता नहीं कुछ भी जहान में उन्हें साबिर,,
जो एक बार गिर कर संभलना छोड़ देते हैं.. 

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